एक अजीब सी वहशत थी, एक अनकहा जुनून। मैं तुम्हें ढूँढ रहा था। कहाँ? हर उस जगह, जहाँ तुम्हारा होना मुमकिन था। मैं ज़माने के बाज़ारों में भटका, महफ़िलों की रौनक में तुम्हें तलाशा, वीरानियों और तन्हाइयों से तुम्हारा पता पूछा। मेरी दीवानगी का आलम ये था कि हवा के हर झोंके से तुम्हारा नाम सुनता, बारिश की हर बूँद में तुम्हारा अक्स देखता और फूलों की हर महक में तुम्हारी मौजूदगी महसूस करने की कोशिश करता।
मैं दर-ब-दर भटकता रहा, एक ऐसे मुसाफ़िर की तरह जिसे मंज़िल का तो पता है, पर रास्ते की ख़बर नहीं। मैंने लोगों की आँखों में झाँका, इस उम्मीद में कि शायद तुम्हारी कोई परछाईं वहाँ क़ैद मिले। मैंने किताबों के हर्फ़ों को टटोला, सोचा शायद शायरों ने तुम्हें अपने लफ़्ज़ों में छुपा रखा हो। पर हर चेहरा बेगाना लगा, हर महफ़िल ख़ाली और हर लफ़्ज़ बेमानी। दुनिया एक विशाल आईना थी, जिसमें सब दिखते थे, सिवाय तुम्हारे।
थक हार कर, जब मेरे क़दमों ने आगे बढ़ने से इंकार कर दिया और मेरी उम्मीद का दीया टिमटिमाने लगा, मैं बैठ गया। दुनिया से नज़रें हटाकर, पहली बार मैंने आँखें बंद कीं। एक ख़ामोशी थी, एक गहरा सन्नाटा। बाहर का शोर थम चुका था।
और उसी गहरे सन्नाटे में, मैंने एक दस्तक सुनी। ये दस्तक बाहर से नहीं, मेरे अंदर से आ रही थी। मैंने डरते-डरते, काँपते हुए हाथों से अपने ही दिल के दरवाज़े को खोला... और झाँक कर देखा।
और तुम... तुम तो वहाँ थे!
वही सुकून, वही रौशनी, वही मुस्कान जिसे मैं पूरी कायनात में ढूँढ रहा था, वो तो मेरे ही वजूद के केंद्र में विराजमान थी। तुम मेरे दिल में महज़ एक मेहमान की तरह नहीं ठहरे थे, तुम तो उस दिल की धड़कन थे। तुम वो साँस थे जिसके बिना मेरा वजूद अधूरा था। तुम वो नूर थे जिसने मेरी रूह को रौशन कर रखा था और मैं पागल, उस नूर को बाहर के चराग़ों में ढूँढ रहा था।
ये क्या भूल थी! मैं पानी की तलाश में रेगिस्तान छानता रहा, जबकि अमृत का झरना मेरे भीतर ही बह रहा था। मैं जिसे ख़ुदा समझकर मंदिरों और मस्जिदों में खोजता रहा, वो मेरी ही आत्मा की गहराई में बैठा मुस्कुरा रहा था।
अब समझ आया कि ये तलाश बाहर की नहीं, ख़ुद से ख़ुद तक के सफ़र की थी। तुम मुझसे जुदा कभी थे ही नहीं, बस मैं ही इस हक़ीक़त से अनजान था।
और अब मैं कह सकता हूँ:
उम्र भर भटकता रहा तेरी तलाश में दर-ब-दर,
जब नज़र ख़ुद पर पड़ी, तो तुम मिले मेरे ही घर।
क्या अजब सा खेल था, ये कैसा फ़साना था,
जिसे बाहर ढूँढता था, वो तो दिल का ही ख़ज़ाना था।